महेश चंद्र पुनेठा
पिथौरागढ़। अपनी बात की शुरुआत मैं भारतीय शिक्षा की समस्याओं से कर रहा हूं। किसी को यह नकारात्मक लग सकता है, लेकिन मेरा मानना है कि यदि हमें किसी भी क्षेत्र कोई सुधार या बदलाव करने हैं तो सबसे पहले उस क्षेत्र की समस्याओं की जानकारी या समझ हमारे पास होना जरूरी है, तब हम उसके समाधान की ओर बढ़ सकते हैं। इसलिए मैं शिक्षा व्यवस्था की कुछ मोटी मोटी समस्याओं को रेखांकित कर रहा हूं, जो इस प्रकार है …
1- आज शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सूचना या जानकारी को ही ज्ञान माना जा रहा है। ज्ञान के नाम पर नई पीढ़ी को सूचनाओं और तथ्यों का हस्तांतरण किया जा रहा है। बच्चों के मस्तिष्क में उसे ठूंसा जा रहा है। जो विद्यार्थी जितनी अधिक सूचनाओं और तथ्यों को रट पा रहा है, उसे उतना अधिक होशियार मान लिया जा रहा है। वर्षों से हम ज्ञान प्रदान करने या प्राप्त करने की बात करते आ रहे हैं ,जबकि वास्तविकता यह है कि ज्ञान कोई वस्तु नहीं है, जिसे एक प्रदान करे और दूसरा प्राप्त। ज्ञान का तो निर्माण और सृजन होता है और शिक्षा ज्ञान निर्माण या सृजन की एक प्रक्रिया है। इसी का परिणाम है कि हमारी शिक्षा विवेकशील नागरिक तैयार करने में पूरी तरह असफल हुई है।
2-हमारी पूरी शिक्षा परीक्षा केंद्रित है। शिक्षा का परम लक्ष्य परीक्षा में अच्छे अंक या ग्रेड प्राप्त करना हो गया है। शिक्षक वही पढ़ा रहे हैं, जिससे विद्यार्थी परीक्षा में अधिक से अधिक अंक प्राप्त कर सकें और विद्यार्थी भी वही पढ़ना चाह रहे हैं। अभिभावक भी यही चाहते हैं कि उनके पाल्य वही पढ़ें जो उन्हें अधिक से अधिक अंक दिला सके या प्रतियोगिता परीक्षाओं में सफलता। इसी का परिणाम है कि नैतिक-अनैतिक साधनों से परीक्षा को साधने की कोशिश की जा रही है। ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण अंक और प्रमाणपत्र हो गए हैं।
3-हमारी शिक्षा में रचनात्मकता के लिए कोई स्थान नहीं है। किताबों में दर्ज सूचनाओं,सिद्धांतों, परिभाषाओं और तथ्यों का तो मूल्यांकन होता है लेकिन रचनात्मकता का नहीं। रचनात्मकता के लिए न शिक्षकों के पास अवकाश है और न ही विद्यार्थियों के पास।
4-किताबों की दुनिया और बाहर की दुनिया में गैप बढ़ता ही जा रहा है।
5- शिक्षा शारीरिक श्रम के प्रति हिकारत का भाव पैदा करने का काम कर रही है। एक सोच बन गई है कि शिक्षा प्राप्त करने का एक उद्देश्य शारीरिक श्रम से मुक्ति है। बच्चों को यह कहते हुए भय दिखाया जाता है-पढ़ो-लिखो अन्यथा पत्थर फोड़ने पड़ेंगे, जानवर चराने होंगे, बोझ ढोना होगा या फिर खेती-बाड़ी का काम करना होगा अर्थात शारीरिक श्रम से बचना है तो पढ़ना है। ज्ञान और उत्पादक कार्य के बीच गहरी खाई बनती जा रही है।
6- माध्यम भाषा के रूप में परिवेशीय भाषा की घोर उपेक्षा भी हमारी शिक्षा की एक बड़ी समस्या है, जिसके चलते विद्यार्थी अपनी जमीन और जड़ों से दूर होते जा रहे हैं और ज्ञान सृजन की प्रक्रिया में भी शामिल नहीं हो पा रहे हैं।
7- शिक्षा सच्चा इंसान नहीं बल्कि अर्थ मानव पैदा कर रही है। शिक्षित होकर व्यक्ति को अधिक संवेदनशील इंसान बनना चाहिए था, लेकिन वह अधिक चालाक और स्वार्थी होकर निकल रहा है।
8- स्कूली शिक्षा में कला,संगीत,खेल और सांस्कृति गतिविधियों के लिए बहुत कम स्थान है। इन्हें मुख्य विषयों जैसा महत्व भी नहीं प्रदान किया जाता है।
9- अभी तक हम अपने शिक्षण संस्थानों को ऐसे स्थलों पर नहीं बदल पाए हैं, जहां का वातावरण पूरी तरह लोकतांत्रिक और सृजनात्मक हो। जहां शिक्षक को ही नहीं बच्चे को भी पूरा सम्मान मिलता हो तथा उसकी गरिमा का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता हो। जहां भय का दूर-दूर तक कोई निशान न हो।
10.हमारी शिक्षा व्यवस्था बहुपरती है,जिसके चलते समाज में भी बहुत सारी परतें दिखाई देती हैं, जो सामाजिक अलगाव और विभाजन को पैदा कर रही हैं।
मुझे लगता है जब तक उक्त समस्याओं का समाधान नहीं होगा तब तक शिक्षा न आधुनिक व वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करने वाली होगी ,न वर्गभेद समाप्त करने वाली और न बहुलतावादी संस्कृति का सम्मान करने वाली।
शिक्षक साहित्यकार रमेश चंद्र जोशी “शिक्षा और समाज” पुस्तक के विभिन्न आलेखों में उक्त समस्याओं को संबोधित करते हुए इनके इर्द गिर्द विमर्श को आगे बढ़ाते हैं। यह आलेख उनके द्वारा अलग अलग समय पर लिखे गए हैं। रमेश लगभग तीन दशकों से शिक्षा से जुड़े रहे हैं। इस दौरान वह अलग-अलग भूमिकाओं में रहे एक शिक्षक के रूप में, एक समन्वय के रूप में तथा एक प्रशिक्षक के रूप में। उन्होंने शिक्षा और उसके परिवेश को बहुत नजदीक से देखा जाना और समझा है। इसलिए इस किताब में उनके अनुभव तीनों रूपों में दर्ज होते हैं। अलग-अलग कोणों से देखने के कारण बहुत सारे कोने इसमें दिखाई देते हैं। ऐसा नहीं की जो बातें इसमें लिखी गई हैं, वे सब उनके द्वारा जमीन में उतारी गई। वह इस बात को स्वीकार करते हैं कि शिक्षा के बारे में सैद्धांतिक रूप से जितनी बातें कही जाती हैं, उनको व्यवहार में उतारना इतना आसान नहीं होता है। सही भी है व्यवहार में उतारना केवल एक व्यक्ति के बूते की बात नहीं होती है, परिस्थितियों की इसमें महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि अनुकूल परिस्थितियां न मिलें तो बहुत प्रतिबद्ध और रचनात्मक शिक्षक भी हताश, निराश और कुंठित हो जाता है और धारा के साथ चलने लगता है।
शिक्षा में कार्य करते हुए लंबा अनुभव होने के चलते रमेश केवल समस्याओं को रेखांकित ही नहीं करते हैं बल्कि अनेक समाधान भी सुझाते हैं। उनके द्वारा सुझाए गए समाधान कुछ इस तरह से हैं,जो पूरी किताब को पढ़ते हुए उभरते हैं….
*एक शिक्षक को जुनूनी, शिक्षा में रुचि रखने वाला और बाल मनोविज्ञान को गहराई से समझने वाला होना चाहिए।रोजगार के लिए उसे शिक्षण कर्म को नहीं चुनना चाहिए। शिक्षक चयन प्रक्रिया में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि शिक्षक में उक्त गुण हों।
*बाल और शिक्षक मैत्रीपूर्ण अनुश्रवण हों ।
*स्कूलों में पर्याप्त संख्या में शिक्षकों और भौतिक संसाधनों की व्यवस्था की जाय।
*शिक्षा नीतियों और योजनाओं के निर्माण में शिक्षकों को शामिल किया जाए।
*शिक्षा में प्रत्येक बच्चे को एक समान सुविधाएं और समान अवसर प्रदान किए जाएं।
*सरकारी स्कूलों और सरकारी शिक्षा के प्रति सकारात्मक वातावरण तैयार किया जाय।
*शिक्षकों को शिक्षण से अतिरिक्त अन्य तमाम कार्यों से मुक्त किया जाय।
*शिक्षण माध्यम भाषा के रूप में मातृभाषा का प्रयोग हो।
*विद्यालय का वातावरण भयमुक्त और बच्चों की रुचि के अनुकूल हो।
*सरकारी स्कूलों की बदहाल स्थिति के लिए शिक्षकों को कोसने से अच्छा उसके लिए सामूहिक प्रयास किए जाय।
*शिक्षकों को यथोचित सम्मान दिया जाए और समाज में उनकी नकारात्मक छवि न बनाई जाय।
*शिक्षकों को कार्य करने की अधिक स्वायत्तता प्रदान की जाय।
*शिक्षा नीतियों को ईमानदारी से जमीन पर उतारा जाए।
एक मित्र होने के नाते रमेश चंद्र जोशी को बहुत करीब से देखने का अवसर मुझे मिला है । मैं कह सकता हूं कि बच्चों के प्रति वह बहुत संवेदनशील हैं। इस बात की झलक इस पुस्तक के विभिन्न आलेखों में भी दिखाई देती है। वह बच्चों की छोटी छोटी बातों का भी ध्यान रखते हैं। वह बच्चों के स्क्रीन टाइमिंग के बढ़ने और शारीरिक खेलों के घटते जाने से बहुत चिंतित हैं। वह शिक्षक अभिभावकों के बच्चों के साथ मधुर संबंध बनाने,उन्हें स्वतंत्रता देने, उनकी क्षमताओं पर विश्वास किए जाने ,स्कूल का वातावरण आनंददायी और भयमुक्त बनाये जाने पर बहुत बल देते हैं। वह मधुर संबध बनाए जाने के उपाय भी सुझाते हैं। स्कूल में प्रवेश लेते ही उस पर स्कूल के नियम कानूनों को सख्ती से लागू न करने,उसे सुनने, महत्त्व देनेऔर उसके साथ आत्मीय संवाद स्थापित करने की सलाह देते हैं।
वह मानते हैं कि पूरी शिक्षा व्यवस्था को बच्चों की रुचि और पसंद का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वह बच्चों को किसी भी तरह के दंड देने का विरोध करते हैं। मानसिक उत्पीड़न को बच्चों के लिए शारीरिक दण्ड से भी घातक मानते हैं। उनकी नजर में अपनी इच्छाओं को थोपना और अपनी महत्वाकक्षाओं का बोझ बच्चों में डालना भी उत्पीड़न ही है। वह बच्चों को प्रश्न करने, रचनात्मकता और अभिव्यक्ति के पर्याप्त अवसर दिए जाने के समर्थक हैं। यह बहुत जरूरी भी है।
रमेश अपनी इस किताब में बार-बार इस बात का जिक्र करते हैं कि डंडे के बल पर ना बच्चे सीख सकते हैं और न शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार हो सकता है। उनकी इस बात से मेरी भी पूरी सहमति है । निश्चित रूप से सीखने सिखाने की प्रक्रिया में भय का कोई स्थान नहीं होता है। यदि शिक्षक भयग्रस्त है तो निश्चित रूप से यह भय बच्चों तक भी पहुंचता है। ऐसी स्थिति में सीखने सिखाने की प्रक्रिया सहज रूप से नहीं चल सकती है। मेरी यह दृढ़ मान्यता है कि स्वतंत्रता, विश्वास और संवाद शिक्षण प्रक्रिया के मूल तत्व हैं। शिक्षक के संदर्भ में हो या फिर बच्चे के इन तीनों का ध्यान रखा जाना बहुत जरूरी है। इसलिए जितना ध्यान बच्चे के मनोविज्ञान का रखने की जरूरत है, उतनी ही शिक्षक के मनोविज्ञान का भी। प्रकारांतर से रमेश भी इस बात को उठाते हैं।
रमेश चंद्र जोशी उन शिक्षकों में से हैं, जो नियमित रूप से अध्ययन करते हैं।उनका अपना एक निजी पुस्तकालय है,जिसमें आपको शिक्षा,साहित्य और संस्कृति की स्तरीय पुस्तकें मिल जायेंगी। स्वयं पढ़ने वाला शिक्षक ही बच्चों की पुस्तकों से दोस्ती करा सकता है। इसलिए पढ़ने की संस्कृति अभियान से रमेश चंद्र जोशी बहुत लंबे समय से जुड़े हैं। अपने प्रयासों से पढ़ने की संस्कृति को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करते रहे हैं। वह आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व गंगोलीहाट में पढ़ने की संस्कृति के विकास के लिए गठित कादम्बिनी क्लब के संयोजक बने। कुछ वर्षों तक वहां ये गतिविधियां चलती रहीं। उसके बाद भी पढ़ने पढ़ाने और पुस्तकालय से संबद्ध गतिविधियों में उनकी सक्रियता हमेशा बनी रही, जो अभी भी जारी है।अपने विद्यालय में भी बच्चों के लिए पुस्तकालय का संचालन करते हैं। “दीवार पत्रिका:एक अभियान” के साथ भी वह शुरुआती दिनों से ही सक्रिय भूमिका में रहे हैं।अपने स्कूल के साथ साथ विभिन्न प्रशिक्षणों में दीवार पत्रिका को तैयार करने के लिए बच्चों और शिक्षकों को प्रेरित करते रहे हैं। इस तरह पढ़ने लिखने से उनका गहरा लगाव है।
इस पुस्तक में भी उन्होंने दीवार पत्रिका और पढ़ने की संस्कृति के विविध आयामों को लेकर अपनी बात विस्तार से कही है। पिथौरागढ़ जनपद में पढ़ने की संस्कृति की दिशा में हो रही प्रयासों को भी रेखांकित किया है। वह पाठ्यपुस्तक से इतर पुस्तकें पढ़ना बच्चों के मानसिक और संवेदनात्मक विकास के लिए जरूरी मानते हैं। उनका यह दृढ़ विश्वास है कि यदि प्रत्येक घर में अच्छी पुस्तकें उपलब्ध होंगी तो घर के लोग जरूर उनको पढ़ेंगे। वह बिल्कुल सही कहते हैं कि हमें पुस्तकों के बारे में अपनी समझ को विकसित करना होगा। विशेष तौर पर बच्चों के मामले में आज भी अधिकांश लोगों के मन में यही धारणा है कि बच्चे केवल अपने पाठ्यक्रम की पुस्तकों पर अपना ध्यान केंद्रित करें। उनको इधर उधर की किताबों पर झांकने नहीं दिया जाता है। इस संबंध में यह बात काफी महत्वपूर्ण है कि पढ़ने की आदत का विकास करने और सीखने सिखाने में जितनी बड़ी भूमिका पाठ्यक्रम में शामिल पुस्तकों की है, उससे कहीं अधिक अन्य किताबों की है। रमेश पढ़ने की संस्कृति को विकसित करने के लिए बहुत सारे व्यावहारिक सुझाव भी देते हैं। मेरा मानना हैं कि यदि इन सुझावों को अपनाया जाय तो निश्चित रूप से नई पीढ़ी में पढ़ने की आदतों का विकास किया जा सकता है।
रमेश एक नवाचारी शिक्षक के रूप में जाने जाते हैं। बच्चों के साथ पढ़ने लिखने की आदतों के विकास के लिए नए नए प्रयोग करते रहते हैं। दूसरे विद्यालयों और शिक्षक साथियों द्वारा किए जा रहे नवाचारोंं पर भी उनकी नजर रहती है। इसलिए विभिन्न स्कूलों में किए जा रहे नवाचारों का उल्लेख भी उनकी इस किताब में मिलता है। उदाहरण सहित बातों का आना इस किताब को भी उपयोगी बनाता है।ऐसे अनुभव जितने अधिक आ सकें वे पूरे शिक्षा जगत के लिए लाभदायक हैं। ऐसे अनुभवों से न केवल सीखने को मिलता है बल्कि प्रेरणा भी मिलती है।
अंत में अपनी बात को समेटते हुए कहूंगा कि यह किताब शिक्षा नीति, परीक्षा प्रणाली , पाठ्यक्रम,बाल मनोविज्ञान, शिक्षक,स्कूल वातावरण,सामुदायिक सहयोग,शिक्षक प्रशिक्षण, पाठ्यपुस्तक, कक्षा शिक्षण प्रक्रिया,पढ़ने की आदतों,पाठ्य सहगमी क्रियाकलापों,शिक्षण माध्यम भाषा आदि विभिन्न मुद्दों पर बात करती है। ये सारे मुद्दे एक दूसरे से जुड़े होने के कारण अलग अलग आलेखों में बहुत सारी बातों का दोहराव भी हुआ है। कहीं कहीं विचारों में अंतर्विरोध भी दिखाई देता है। बावजूद इसके यह मानना पड़ेगा कि किताब शिक्षा के विमर्श को आगे बढ़ाती है। कुछ जरूरी प्रश्न खड़े करती है। चिंतन करने को आमंत्रित करती है। आप इसमें सुझाए गए समाधानों से असहमत हो सकते हैं लेकिन जिन विसंगतियों की ओर ध्यान खींचा गया है,उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते हैं। आशा है आप न केवल इस किताब को पढ़ेंगे बल्कि इसमें उल्लिखित विचारों और अनुभवों पर आगे बात बढ़ाएंगे। अपने जमीनी अनुभवों को दर्ज करेंगे।
….महेश चंद्र पुनेठा
( *शिक्षा और समाज* पुस्तक की भूमिका।)






