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सागर की कुण्डलियाँ……
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( १ )
दानव बन के बढ़ रहा ,
देखो तालीबान ।
लाजहीन हो ले रहा ,
निर्दोषों की जान ।।
निर्दोषों की जान ,
लहू का मोल नहीं है ।
कौन माँ,भगिनी है ,
किसी की तोल नहीं है ।।
कह सागर कविराय ,
ऐक हों सारे मानव ।
होगी मनु की जीत,
तभी हारेगा दानव ।।
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( २ )
नेह सिखाती है सदा ,
भारत भू की रीत ।
मेलजोल अनमोल दें ,
जिसके पावन गीत ।।
जिसके पावन गीत ,
मनुजता को बोते हैं ।
रत्नाकर के ज्वार ,
मातु के पग धोते हैं ।
कह सागर कविराय ,
सभी को राह दिखाती ।
ऐसी पावन भूमि ,
सभी को नेह सिखाती ।।
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( ३ )
देखो जगने है लगा ,
हिमगिरि का पौरूष ।
सूरज भी होने लगा ,
देखो कुछ कंजूस ।।
देखो कुछ कंजूस ,
हास है खोने वाला ।
अब तो नग है बीज ,
शीत के बोने वाला ।।
कह सागर कविराय ,
लगा है सूरज थकने ।
भाल उठा गिरिराज ,
लगा है देखो जगने ।।
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( ४ )
अब शीतल होने लगी ,
नयन खोलती भोर ।
विहगों की तानें सखी ,
कौन ले गया चोर ।।
कौन ले गया चोर ,
कली अलसाई सी है ।
मेरे उर में अरे ,
सखी सुप्ति छाई सी है ।।
कह सागर कविराय ,
मंद है रवि का भी बल ।
तन को छूती सखी ,
पवन अब लगती शीतल ।।
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©️डा० विद्यासागर कापड़ी
सर्वाधिकार सुरक्षित
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🙏मित्रों को मेरा नमस्कार🙏
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