गोकुलानंद किमोठी ‘ग्रामीण’: एक सैनिक कवि -नंद किशोर हटवाल

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गोकुलानंद किमोठी ‘ग्रामीण’: एक सैनिक कवि
-नंद किशोर हटवाल

गोकुलानंद किमोठी ‘ग्रामीण’ जी गढ़वाल के ऐसे कवि हुए जिन्होंने 28 वर्षों तक भारतीय सैना में अपनी सेवाएं दी। सेवा निवृत्ति के बाद गांव किमोठा जाकर अपने गांव-क्षेत्र के विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक संगठनो से जुड़े और सामाजिक सेवा में सक्रिय रहे। 8 वर्षों तक अपने गांव के ग्राम प्रधान के रूप में कार्य किया। जिलापंचायत के सदस्य रहे। इन सभी कार्यों के साथ-साथ वे लगातार अपने रचनाकर्म में संलग्न रहे। साहित्यिक कार्यक्रमों, गोष्ठियों कवि सम्मेलनों में भी प्रतिभाग करते रहे। स्थानीय अखबारों में उनकी रचनाएं निरन्तर प्रकाशित होती रही।


‘ग्रामीण’ जी के कुल 7 कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं। 1-गढ़वाल गाथा (1959), 2-पितरू कू रैबार (1979), 3-ग्रामीण का दोहा (1999), 4-डांड्यू कु रैबार (2006), 5-गोकुलानंद किमोठी की गढ़वाली रचनाएं (2007), 6-सैनिक की पाती (2010), 7-हरियाली, बाल कविता संग्रह (2018)। इनमें सैनिक की पाती और हरियाली हिंदी में हैं और शेष गढ़वाली में। वर्ष 2007 में छपी ‘गोकुलानंद किमोठी की गढ़वाली रचनाएं’ किताब ‘ग्रामीण का दोहा’ (1999) और ‘पितरू कू रैबार’ (1979) का संयुक्त रूप से पुनर्प्रकाशन है। अतः उनके छः कविता संग्रह प्रकाशित हैं।
‘ग्रामीण’ जी का रचना संसार
गोकुलानंद किमोठी ‘ग्रामीण’ जी की कविताएं गांव के प्रति गहन अनुराग की कविताएं हैं। उनकी कविताओं में गढ़वाल के गांवों की जीवन्त तस्वीर नजर आती है। अधिकांश कविताएं गांव के इर्दगिर्द घूमती हैं और ग्राम जागरण, ग्राम स्वराज, ग्रामोत्थान, गांव के मूल्य, ग्रामीण भाषा और संस्कृति की स्थापना इनकी कविताओं के केन्द्रीय स्वर हैं।
हर समाज की तरह पहाड़ी समाज के भी अपने कुछ विशिष्ट और नैतिक मूल्य हैं। ‘ग्रामीण’ जी की कविताएं इन मूल्यों के प्रति सचेत हैं। पहाड़ी समाज में परम्परागत रूप से रूपये-पैंसों के लिए ज्यादा व्याकुलता अच्छी नहीं मानी जाती है। इसे हास्यास्पद और फकीरी को प्रशंसनीय माना जाता है। ‘ग्रामीण’ जी की कविताओं में इस प्रकार की मूल्य स्थापनाएं जगह-जगह दिखती हैं। इनकी कविताआंे में भाषा और संास्कृतिक मूल्यों के प्रति चिंता, आत्मनिर्भर बनने, अपने स्व को जगाने, परिश्रम, मेहनत और ईमानदारी पर विश्वास दिखता है। उन्होंने गांवों का विकास, उसमें बरती जाने वाली लापरवाही, विकास योजनओं की चीरफाड़ और उनके हाल और नियति को अपनी कविता का प्रमुख विषय बनाया है।
ग्रामीण युवक उनकी कविताओं की प्रमुख चिंता हैं। युवाओं की अकर्मण्यता, गलत आचरण, कृषिकार्यों से अरूचि, परम्परागत नैतिक मूल्यों का ह्रास, शहरियों की नकल करते हुए आधुनिकता का ढकोसला आदि तमाम प्रवृत्तियों पर उनकी कविताओं में चुटकियां और व्यंग्य दिखते हैं। उनकी कविताएं गांव में भ्रष्टाचार के बुनियादी सच को उधेड़ती हैं और इससे आमजन को होने वाली पीड़ा को अभिव्यक्त करती हैं। अकर्मण्यता पर निशाना, कर्मठता का गुणगान उनकी कविताओं के प्रमुख स्वर हैं।
‘ग्रामीण’ जी की कविताएं सत्ता और व्यवस्था के नकारापन के विरोध की कविताएं हैं। वे जनसरोकारों के साथ गहनता से जुड़ते हुए अपने समय पर सार्थक हस्तक्षेप करती हैं। अचिह्नित, उपेक्षित, महत्वहीन और हाशिए पर खिसके गांव के सच को उद्घाटित भी करती हैं ‘ग्रामीण’ जी की कविताएं। बहुत बड़े राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्री मसलों, राजनैतिक शोर-शराबे, विवादों के हो-हल्ले के कारण पहाड़ी गांवों के दम तोड़ते, सिसकते छोटे और महत्वहीन बनाई गई पीड़ाओं और समस्याओं का काव्य है गोकुलानंद किमोठी ‘ग्रामीण’ का। ‘ग्रामीण’ जी का रचना संसार कल्पानओं की स्वप्निल दुनिया के बजाय यथार्थ की ठोस, खुरदरी और खुश्क जमीन पर खड़ा है। उनमें पहाड़ी ग्राम्यजीवन के वास्तविक संघर्ष हैं।
‘ग्रामीण’ जी की काव्यकला
‘ग्रामीण’ जी ने अपनी गढ़वाली रचनाओं में चंद्रशिला पट्टी की ठेठ नागपुरी भाषा का प्रयोग किया है। उस क्षेत्र में शब्दों का जैसा उच्चारण किया जाता है ठीक उसी प्रकार से लिखा है। इसलिए यह दूसरे क्षेत्र के गढ़वाली भाषियों के लिए कुछ दुरूह भी होती हैं। जैसे ‘अर’ (और) के लिए ‘र’ का प्रयोग, कारक चिह्न ‘तें’ (को या के लिए) के स्थान पर ‘क’ अथवा ऽ चिह्न का प्रयोग करना, दीर्घ ध्वनियों के लिए भी ऽ चिह्न का प्रयोग किया गया है। हिंदी रचनाओं में तद्भव और देशज शब्दों का प्रयोग अधिक किया है।
गांव में बोलचाल में प्रचलित नवीन शब्दप्रयोग उनकी कविताओं में प्रभाव पैदा कर देते हैं-सोर्स यना तगड़ा रयां, नी ह्वे ज्यादा देर/मालिक छौं उद्योग को, समय-समय को फेर/(ग्रामीण का दोहा/डाग्टर भैजि दगड़ि/पृ.सं.-30) हम आयां यख खण्ड मा, क्षेत्र समिति को काज/हल्ला-गुल्ला खूब छ, कैका चढ़यां मिजाज/(ग्रामीण का दोहा/क्षेत्र पंचैत मा/पृ.सं.-12, 13) कबी खोजणू सचिव तैं, कबी विकास का साब/खैले गौं वालून सो, लगीं च भागमभाग/(ग्रामीण का दोहा/गौं-गौ मां/पृ.सं.-8)
इन पंक्तियों में ‘सोर्स’ ‘तगड़ा’ और ‘खण्ड’ शब्द बोलचाल में खूब प्रयुक्त होते हैं। गांवों में विकासखण्ड कार्यालय को सिर्फ ‘खण्ड’ और ‘बीडीओ’ को ‘विकास का साब’ ही कहा जाता है। उनका पूरा काव्य सहज-सरल और प्रचलित भाषा का काव्य है-कदम कदम पर घूस छ, जौला कनकै पार/एक टका का काम क, चैंदा चार हजार/(ग्रामीण का दोहा/गौं-गौ मां/पृ.सं.-1)
‘ग्रामीण’ जी की शब्द चेतना प्रखर है। उनकी कविताओं में प्रयुक्त साधारण शब्द भी असाधारण अर्थ और प्रभाव उत्पन्न करते हैं। वे साधारण शब्दों से भी बड़ी हलचल पैदा करने में निष्णात हैं। उनकी कविताओं में सामान्य शब्दों के प्रयोग से जिस प्रकार अन्यार्थ उत्पन्न होते हैं वे दृष्टव्य है-जैल पिलौणी नी कबी, जैल नी देणी घूस/तै से नी होलो कुछू, काटि नि सकलो पूस। इन पक्तियों में ‘काटि नि सकलो पूस’ का अर्थ ‘ज्यादा नहीं चल पायेगा’ है। मांगण क पाणी गयां, ‘देवता जी का द्वारा’/‘भट्याभट्ट’ तख छै पड़ीं, छौ ‘रूप्यों कु बुखार’/आदत से लाचार छ, यो विकास को काम/बिना ‘दक्षणा’ का कखी, लेंणू नी क्वे नाम। इन पक्तियों में ‘देवता जी का द्वारा’/‘भट्याभट्ट‘ ‘रूप्यों कु बुखार’ ‘दक्षणा’ जो लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ उत्पन्न कर रहे हैं वह उनकी काव्यकला का अनुपम उदाहरण है। इसी प्रकार-बुड्यों की क्वे बाच नी, ज्वान खेलणा तास/रोणा गोरू बाखरा, गौचर छन आबाद। ये पंक्तियां गांव के बूढ़ों की बेबसी, युवाआंे की अकर्मण्यता और पशुपालन एवं चारागाहों की बर्बादी की जो ध्वनि पैदा रही है वो उनकी भाषा और काव्यचेतना को विशिष्ठ बना देती है।
‘ग्रामीण’ जी की काव्यभाषा खूबसूरत मुहावरों से सुसज्जित है। यथा- पिछला प्रस्तो मा हमून, फेर ‘पुरेले भौंण’/कागज छोड़ी धरति पर, जौंन कबी नी औंण/(ग्रामीण का दोहा/क्षेत्र पंचैत मा/पृ.सं.-12, 13)ब्लॉक प्रमुख को अब चुनौ, लैगयां ‘तीर चलौंण’/अपणा-अपणा खर्क मा, बैठ्यां ‘सिंग पल्यौण’/(ग्रामीण का दोहा/क्षेत्र पंचैत मा/पृ.सं.-11)तेरा मेरा जुल्म से कुदरत छ बेहाल/देखा-देखी तैंन बी, करले अब हड़ताल/(ग्रामीण का दोहा/गौं-गौ मां/पृ.सं.-1)
उक्त पक्तियों में भौंण पुर्यौण(हां में हां मिलाना), धरति पर नि ओंण (सच न हो पाना) तीर चलौंण (निशाना साधना) और सिंग पल्यौंण (लड़ाई की तैयारी करना) हड़ताल करना (कार्य न करना) मुहावरों का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार ‘पौबारा छ तंत्र की, आदम्यो निकली तेल/बणन चल्यूं अंगरेज च, बिसरी अपणी चाल/हेर-फेर मा ही फंस्यां छन विकास का खेल। उनकी कविताओं में इसी प्रकार प्रचलित मुहावारों के कई प्रयोग हुए हैं। इसके साथ ही उनकी काव्य पक्तियों में सामान्य शब्द भी मुहावरों के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। यथा ‘हाथ सामु कन’ का प्रयोग घूस देने के अर्थों में हुआ है।
अधिकांश कविताएं तुकान्त, छंदबद्ध और गीत के फार्मेट में लिखी गई हैं। दोहा छंदों का प्रयोग बहुतायत से किया गया है। उन्होंने अतुकान्त और गद्य कविताएं भी लिखी हैं।
उनकी कविताओं की व्यंग्य-विनोद शैली भ्रष्टाचार पर बहुत माफिक बैठती है। पहाड़ों में भूस्खलन की समस्या पर व्यंग्य देखें-गदरों का छालूं बणी, छन कुछ यनीं दीवाल/सूखो पड़लो फेर त, रै जाली ये साल/छद्म अधुनिकता और पलायन पर व्यंग्य देखें-परिवर्तन का नाम पर, पाए एक्कू चीज/अंकल आन्टी सूणेंद, छ्वटा छोरू का बीच। पलायन पर व्यंग्य-सरकी-सरकी लोग बी, जाणा छन परदेश/माटो गदरा लीगिन, गारा ढुंगा शेष।
‘ग्रामीण’ की कविताओं में लोक का गहरा प्रभाव दिखता है। उन्होने व्यंग्य के साथ लोक में प्रचलित प्रश्नोत्तर, संवाद, सम्बोधन, कथा-किस्सों की शैली के प्रयोग भी खूब किए हैं। एक संवाद देखें-‘पदान जी तुमारा खांतड़ु पर यति सीमेन्ट कनै लग्यूं’/भुला तू देखणु नी/योजना कु काम चल्यूं/कखि डांगरि बी नि मिलि/पदान क्या बण्युं कि/बिना ध्याड़्यो मेट बण्यूं/(डांड्यूं कु रैबार/हैंसणै छ्वीं/नौ/पृ.सं.-59)
अस्पताल और चिकित्सा व्यवस्था पर एक व्यंग्य देखें जो कि एक आत्मकथात्मक किस्से के रूप में है-जिला अस्पताल का डाक्टरन/मैं देख्युं र सात दवे ल्येखि पर्ची दीनि/पर मैंन तौंका भण्डार मा एक बी दवे नि पैनि/दवै देण वाला न बोलि-‘बुड्या जी आ/पांच रूप्या दी द्या/गरम पाणि का गरारा करि ल्या/बाकि छै दवे/बजार बी पैंसु मा ली ल्या/ (डांड्यूं कु रैबार/हैंसणै छ्वीं/पच्चीस/पृ.सं.-65)
‘हम कति ऐंच उठ्यां’ कविता शहरों से गांव आए एक युवक दाणि का किस्सा है जो कि गांव में रोब झाड़ता है। उसका एक अंश देखिए-‘‘मैंन पूछे दाणि खूब च?’’/‘‘क्या कहा? गढ़वाली भूल गया/यहां कुछ अच्छा नहीं/दो दिन रहूंगा फिर चला।’’/‘‘अला, अपणी ब्वै स्यवा लगौ।’’/‘‘मैं ये ढोंग नहीं मानता/एक बार नमस्ते कर दिया/और कुछ नहीं जानता।’’/‘‘चल ओबरा खाणु खौला।’’/‘‘तिबारी में लाओ।’’/‘‘जुत्ता गाड़ हाथ खुट्टा धो।’’/‘‘पानी यहीं पर मंगाओ।’’/(डांड्यूं कु रैबार/हम कति ऐंच उठ्यां/पृ.सं.-33)
इसी प्रकार ‘ग्रामीण’ जी ने लोकोक्तियों और सूक्तियों में प्रयुक्त शैली का भी खूब प्रयोग किया है-बल्द भला हल्या लेणा/गौड़ि लेणि दुधारू/दगड़ा चैंद दुख-सुखौ/नेता चैंद जुझारू।
‘ग्रामीण’ जी का जीवन परिचय
‘ग्रामीण’ जी का जन्म 7 अप्रैल 1931 को गढ़वाल के चंद्रशिला पट्टी, नागपुर, विकासखण्ड पोखरी के किमोठा गांव में हुआ। पिता का नाम केशवानंद किमोठी और माता जी का नाम मथुरा देवी था।
‘ग्रामीण’ जी ने प्राइमरी स्कूल रड़ुवा से पहली कक्षा उत्तीर्ण की और दूसरी कक्षा में कमल सिंह बर्त्वाल जी के साथ लंगासू चले गए। बर्त्वाल जी इनके पारिवारिक मित्र थे और लंगासू में अध्यापक थे। कक्षा दो और तीन लंगासू से उत्तीर्ण किया। आगे की पढ़ाई रड़ुवा, नागनाथ, वार मेमोरियल स्कूल कर्णप्रयाग, सोलन (हिमाचल प्रदेश) से किया और 6 अक्टूबर 1950 को वहीं शिमला से ही आर्मी में भर्ती हो गए।
सेवा निवृत्ति के बाद
28 साल भारतीय सेना में सेवा के बाद अक्टूबर 1978 में सेवा निवृत्त होने के बाद ‘ग्रामीण’ जी अपने गांव किमोठा चले आए और वहां सामाजिक सेवा में सक्रिय हो गए। वहां वे ‘नागपुर जागरण संघ’ तथा ‘चन्द्र शिला विकास समिति’ के माध्यम से सामाजिक कार्यों तथा स्थानीय समस्याओं के निराकरण में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते रहे। उस क्षेत्र में उस दौरान नियमित बसों की समस्या थी। संघ के माध्यम से उन्होंने उस क्षेत्र में ऋषिकेश-रूद्रप्रयाग-पोखरी-हापला और गोपेश्वर-पोखरी के लिए नियमित बस सेवाएं लगवाई। पोखरी में स्टेशन बनवाया। कई स्थानीय मांगों और समस्याओं को लेकर वे तत्कालीन राजधानी लखनऊ तक जाते रहते। इन संगठनों के माध्यम से क्षेत्र की सड़क पक्की करवाना, दिवारबंदी, चांदनीखाल में पोस्ट आफिस खुलवाने जैसे महत्वपूर्ण कार्य किए।
गांव प्रधान के रूप में कार्य
‘ग्रामीण’ जी 8 सालों (जुलाई 1988 से 1996 ) तक अपने गांव के प्रधान रहे। वर्ष 1991 में वे भूतपूर्व सैनिकों की तरफ से राज्यपाल द्वारा जिला परिषद के सदस्य भी नोमिनेट हुए। इस पद पर उन्होंने 2 वर्षों तक कार्य किया। ‘ग्रामीण’ जी ‘शिक्षा तथा बीस सूत्रीय समिति’ के सदस्य भी रहे। प्रधान के रूप में कार्य करते हुए ‘ग्रामीण’ जी ने गांव के विकास कार्यों को बेहतर रूप से अमलीजामा पहनाया। अपने कार्यकाल में गांव में सफाई प्रतियोगिता करवाई और पुरस्कार वितरण किया। इस कार्यकाल के अनुभवों पर आधारित उनकी कविताएं ‘ग्रामीण का दोहा’ संग्रह में संग्रहीत हैं। ‘ग्रामीण’ जी ने ‘उत्तराखण्ड सीमान्त भूतपूर्व सैनिक संगठन चमोली’ का गठन भी किया और इसके महासचिव के रूप में भूतपूर्व सैनिकों के हितों के लिए कार्य भी करते रहे।
‘ग्रामीण’ जी वर्तमान में वे देहरादून में अपने बेटों के साथ रह रहे हैं। इस समय उनकी उम्र 90 वर्ष है और वे साहित्यिक गतिविधियों में सक्रिय और स्वस्थ हैं।
पुरस्कार और सम्मान
चंद्रकुंवर बर्त्वाल साहित्य संस्थान पंवालिया, रुद्रप्रयाग( 1999), उत्तराखंड संस्कृति, साहितय एवं कला परिषद् उत्तरांचल, द्वारा उत्तराखंड के वरिष्ठ साहित्यकार सम्मान(2006), उत्तराखंड पूर्वसैनिक एवं अर्धसैनिक संगठन द्वारा स्थापना दिवस पर सैनिक शिरोमणि सम्मान(2006), पहाड़ संस्था, नैनीताल द्वारा पहाड़ रजत सम्मान(2010), बदरी केदार विकास समिति, देहरादून द्वारा साहित्यिक सम्मान (2014)।
एच-323
नेहरू कालोनी, देहरादून,
उत्तराखण्ड-248001

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