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गिरि गुरु तू चितचोर…..
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हिमालय को देखकर अनायास ही हिमालय के लिये न जाने क्यूँ मेरे उर में गिरि गुरु शब्द निकल आया
मैंने यह शब्द डिक्शनरी व गूगल में भी खोजा कहीं नहीं मिला । सम्भवतः यह हिमालय का नूतन नाम हो ।
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गिरि गुरु तू चितचोर ।
अरे ओ ,
गिरि गुरु तू चितचोर ।
अधरों पर नित हास लिये तू ,
नभ से नव-नव रास किये तू ।
जब देखूँ तब लगता नूतन ,
खींच-खींच कर तू मेरा मन ।।
करता भाव विभोर ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
अरे ओ ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
मन करता तुझमें मिल जाऊँ,
जैसा तू वैसा खिल जाऊँ ।
जग से दूर व निज में खोकर ,
सुख-दुख से नित अविचल होकर ।
करूँ न कोई शोर ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
अरे ओ ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
विभा मिले या तम छा जाये ,
निज जीवन में सम आ जाये ।
दिनकर,आँधी ,तूफानों का ,
निंदा,जय की गुणगानों का।।
चले न कोई जोर ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
अरे ओ ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
छुपा हुआ क्या मन में कुछ प्रण ,
कैसा अविरल है आकर्षण ।
चाहे नीरस , मतवाला हो ।
श्रान्त चित्त,उर में ज्वाला हो ।।
खींचे उर की डोर ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
अरे ओ ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
तू करता भाव विभोर ।
अरे ओ ।
गिरि गुरु तू चितचोर ।।
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©️डा० विद्यासागर कापड़ी
सर्वाधिकार सुरक्षित
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मित्रों को शुभ प्रभात
🙏 मित्रों को मेरा नमस्कार🙏